
श्रीमद्भगवद्गीता का पंचम अध्याय “कर्मयोग का ज्ञान” कहलाता है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मयोग और संन्यास के बीच का अंतर समझाते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि दोनों ही मार्ग मोक्ष के लिए उपयुक्त हैं, लेकिन कर्मयोग (कर्म करते हुए आसक्ति रहित जीवन जीना) अधिक सरल और व्यावहारिक है। इस अध्याय में कुल 29 श्लोक हैं।
पंचम अध्याय का मुख्य सारांश:
- कर्मयोग और संन्यास की तुलना (श्लोक 1-6):
- अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि संन्यास (कर्म का त्याग) और कर्मयोग (कर्तव्यों को निष्काम भाव से करना) में कौन श्रेष्ठ है।
- भगवान कृष्ण समझाते हैं कि केवल कर्म का त्याग करने से मोक्ष प्राप्त नहीं होता। सच्चा त्याग वह है, जिसमें कर्ता फल की आसक्ति से मुक्त होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है।
- ज्ञानी और स्थिर बुद्धि (श्लोक 7-16):
- ज्ञानी व्यक्ति का चित्त शांत होता है। वह ईश्वर को समर्पित होकर निष्काम भाव से कर्म करता है और संसार के सुख-दुख से प्रभावित नहीं होता।
- ऐसा व्यक्ति स्वयं को और सभी प्राणियों को समान दृष्टि से देखता है।
- कर्मयोग के लाभ (श्लोक 17-26):
- जो व्यक्ति कामनाओं और आसक्तियों को त्यागकर केवल आत्मज्ञान में स्थिर हो जाता है, वह भगवान के साथ एकात्म हो जाता है।
- ऐसा व्यक्ति न केवल स्वयं के लिए, बल्कि समस्त मानवता के कल्याण के लिए कार्य करता है।
- परम शांति का मार्ग (श्लोक 27-29):
- अपनी इंद्रियों, मन और बुद्धि को नियंत्रित करके, सभी कर्म भगवान को समर्पित कर, और फल की इच्छा का त्याग करके, व्यक्ति परम शांति को प्राप्त करता है।
- भगवान कृष्ण अंत में कहते हैं कि जो व्यक्ति उन्हें सब कुछ अर्पित करता है और उन पर पूर्ण विश्वास रखता है, वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।
महत्वपूर्ण श्लोक:
- श्लोक 5.10:“ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य:।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥”- अर्थ: जो व्यक्ति सभी कर्म भगवान को अर्पित करके और आसक्ति त्यागकर कार्य करता है, वह पाप से मुक्त रहता है, जैसे जल में स्थित कमल का पत्ता जल से अछूता रहता है।
- श्लोक 5.29:“भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥”- अर्थ: जो मुझे यज्ञ और तप का भोक्ता, समस्त लोकों का स्वामी और सभी प्राणियों का सच्चा हितैषी जानता है, वह परम शांति को प्राप्त करता है।
निष्कर्ष:
पंचम अध्याय कर्मयोग का महत्व समझाता है। भगवान कृष्ण यह कहते हैं कि केवल कर्म का त्याग नहीं, बल्कि कर्म करते हुए फल की आसक्ति का त्याग ही मोक्ष का मार्ग है। यह अध्याय आत्म-संयम, आत्मज्ञान, और निष्काम कर्म की महत्ता को उजागर करता है।