देव दीपावली की पावन रात
पौराणिक महत्व
पुराणों के अनुसार, इस दिन भगवान शिव ने असुर त्रिपुरासुर का संहार किया था, इसलिए इसे त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहा जाता है। देवताओं ने भगवान शिव की इस विजय के उपलक्ष्य में दीप प्रज्वलित किए, और तभी से यह परंपरा चली आ रही है कि मनुष्य भी इस दिन दीप जलाकर देवताओं का स्वागत करते हैं।
काशी की देव दीपावली
देव दीपावली का सबसे भव्य रूप वाराणसी (काशी) में देखा जाता है। गंगा घाटों पर लगभग एक लाख से अधिक दीपक जलाए जाते हैं। अस्सी घाट से लेकर राजघाट तक हर सीढ़ी, हर मंदिर, हर घर दीपों की पंक्तियों से जगमगा उठता है।
संध्या के समय गंगा आरती का दृश्य अत्यंत मनमोहक होता है — मंत्रोच्चारण, घंटियों की ध्वनि, और हजारों दीपों की झिलमिलाहट से वातावरण आध्यात्मिक बन जाता है।
धार्मिक अनुष्ठान
इस दिन भक्तगण सुबह-सुबह गंगा स्नान करते हैं, दान-पुण्य करते हैं और भगवान शिव तथा भगवान विष्णु की पूजा करते हैं।
- गंगा घाटों पर दीपदान किया जाता है।
- घरों, मंदिरों, और गलियों में भी दीप जलाए जाते हैं।
- कई स्थानों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम, भजन संध्या और गंगा आरती का आयोजन होता है।
आध्यात्मिक अर्थ
देव दीपावली केवल रोशनी का त्योहार नहीं है, बल्कि यह अंधकार से प्रकाश की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, और नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर बढ़ने का प्रतीक है।
यह रात व्यक्ति को अपने भीतर के प्रकाश को पहचानने और शुद्धता की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती है।
निष्कर्ष
“देव दीपावली की पावन रात” केवल काशी या गंगा घाटों तक सीमित नहीं है — यह एक ऐसी रात है जब पूरी सृष्टि मानो दिव्यता में डूबी होती है। हजारों दीपों की रोशनी में जब गंगा बहती है, तो लगता है मानो स्वयं देवता पृथ्वी पर उतर आए हों।
