
श्रीमद्भगवद्गीता के 12वें अध्याय का नाम है – भक्तियोग।
श्रीमद्भगवद्गीता – 12वां अध्याय (भक्तियोग)
यहाँ अध्याय के सभी 20 श्लोकों का हिंदी अर्थ प्रस्तुत है:
श्लोक 1:
अर्जुन उवाच:
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥
अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: जो भक्त सगुण रूप में आपकी उपासना करते हैं और जो निर्गुण, अव्यक्त ब्रह्म की उपासना करते हैं, उनमें से कौन श्रेष्ठ योगी हैं?
श्लोक 2:
श्रीभगवानुवाच:
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता:॥
अर्थ:
भगवान बोले: जो भक्त अनन्य भक्ति से मन को मुझमें लगाकर सगुण रूप में मेरी उपासना करते हैं, वे मुझे अत्यंत प्रिय हैं।
श्लोक 3-4:
अर्थ:
जो लोग निर्गुण, अव्यक्त, अचल और अनिर्देश्य ब्रह्म की उपासना करते हैं तथा इंद्रियों को वश में रखते हैं और सब प्राणियों के हित में लगे रहते हैं, वे भी मुझे प्राप्त करते हैं।
श्लोक 5:
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥
अर्थ:
जो लोग अव्यक्त (निर्गुण) ब्रह्म में मन लगाते हैं, उनके लिए मार्ग कठिन है, क्योंकि यह उपासना देहधारी मनुष्यों के लिए दुष्कर है।
श्लोक 6-7:
अर्थ:
जो भक्त समस्त कर्मों को मुझे अर्पित कर अनन्य योग द्वारा मेरी उपासना करते हैं, उनका मैं स्वयं संसार सागर से उद्धार करता हूँ।
श्लोक 8:
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय:॥
अर्थ:
मन और बुद्धि को मुझमें लगाओ। ऐसा करने से तुम निःसंदेह मेरे में स्थित हो जाओगे।
श्लोक 9:
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय॥
अर्थ:
यदि तुम मन को स्थिर कर मुझमें नहीं लगा सकते, तो अभ्यास योग के द्वारा मुझे पाने का प्रयास करो।
श्लोक 10:
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि॥
अर्थ:
यदि अभ्यास भी न कर सको, तो मेरे लिए कर्म करो। मेरे लिए कर्म करने से भी तुम सिद्धि प्राप्त करोगे।
श्लोक 11:
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रित:।
सर्वकर्मफलत्यागं तत: कुरु यतात्मवान्॥
अर्थ:
यदि तुम यह भी करने में असमर्थ हो, तो सभी कर्मों के फल का त्याग करते हुए आत्मनियंत्रण का अभ्यास करो।
श्लोक 12:
श्रेष्ठो ह्यज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥
अर्थ:
ज्ञान से अभ्यास श्रेष्ठ है, ध्यान ज्ञान से श्रेष्ठ है, और ध्यान से भी कर्मफल का त्याग श्रेष्ठ है। त्याग से तुरंत शांति प्राप्त होती है।
श्लोक 13-14:
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कार: समदु:खसुख: क्षमी॥
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
अर्थ:
जो सभी प्राणियों से द्वेष रहित, मित्रवत, दयालु, अहंकार रहित, सुख-दुख में समान, क्षमाशील, संतोषी, संयमी और दृढ़ निश्चयी है तथा मन-बुद्धि को मुझमें अर्पित करता है, वह मुझे प्रिय है।
श्लोक 15:
यसमान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥
अर्थ:
जो व्यक्ति न तो किसी से परेशान होता है और न ही किसी को परेशान करता है, तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और चिंता से मुक्त है, वह मुझे प्रिय है।
श्लोक 16:
अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
अर्थ:
जो निष्कामी, शुद्ध, चतुर, उदासीन और शोक रहित है तथा सभी आरंभों का त्याग कर देता है, वह भक्त मुझे प्रिय है।
श्लोक 17:
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय:॥
अर्थ:
जो न हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न आकांक्षा करता है, और जो शुभ-अशुभ का त्याग कर देता है, वह मुझे प्रिय है।
श्लोक 18-19:
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो:।
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: सङ्गविवर्जित:॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर:॥
अर्थ:
जो शत्रु-मित्र, मान-अपमान, सुख-दुख, गर्मी-सर्दी में समान भाव रखता है, आसक्ति रहित है, निंदा-स्तुति में सम है, संतोषी है, और स्थिर बुद्धि वाला है, वह मुझे प्रिय है।
श्लोक 20:
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥
अर्थ:
जो भक्त इस धर्म रूप अमृत का अनुसरण करते हैं और मेरी आराधना करते हैं, वे मुझे अत्यंत प्रिय हैं।
निष्कर्ष:
भगवान श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में सगुण और निर्गुण भक्ति के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग बताया है। विशेषकर उन्होंने यह समझाया कि सच्चे भक्त में प्रेम, समर्पण, और शांति के गुण होने चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता के 12वें अध्याय का नाम है – भक्तियोग।
यह अध्याय भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें भगवान ने भक्तियोग को विस्तार से समझाया है। इसमें बताया गया है कि सच्चे भक्त और ज्ञानी के गुण क्या हैं और भगवान की प्राप्ति के लिए किस मार्ग को श्रेष्ठ माना गया है।
अध्याय का सारांश:
- अर्जुन का प्रश्न (श्लोक 1):
अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि क्या भक्तिभाव से भगवान की आराधना करना श्रेष्ठ है या निर्गुण (अव्यक्त) ब्रह्म की उपासना करना? - भगवान श्रीकृष्ण का उत्तर (श्लोक 2-7):
भगवान कहते हैं कि जो भक्त मुझे (सगुण रूप में) अनन्य प्रेम से भजते हैं, वे मुझे सबसे प्रिय हैं।
हालांकि, जो लोग अव्यक्त और निर्गुण ब्रह्म की उपासना करते हैं, वे भी मुझे प्राप्त करते हैं, लेकिन वह मार्ग कठिन और दुष्कर है। - भक्ति के विभिन्न स्तर (श्लोक 8-12):
भगवान ने भक्ति के कई विकल्प दिए हैं:- मन और बुद्धि को भगवान में लगा देना।
- ध्यान के माध्यम से भक्ति।
- कर्म योग के द्वारा भगवान की सेवा।
- यदि इनमें कोई कठिनाई हो, तो निष्काम कर्म करें।
- सच्चे भक्त के गुण (श्लोक 13-20):
भगवान ने सच्चे भक्त के गुणों को विस्तार से बताया:- जो सभी प्राणियों से द्वेष और अहंकार मुक्त है।
- जो शांत, संतोषी और स्वयं पर संयम रखने वाला है।
- जो दुख-सुख में समान रहता है।
- जिसे किसी चीज की आसक्ति नहीं है और जो हर परिस्थिति में भगवान पर विश्वास रखता है।
- जो न किसी को कष्ट देता है और न किसी से भयभीत होता है।
अध्याय का मुख्य संदेश:
भगवान श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में स्पष्ट किया कि सगुण और निर्गुण दोनों की उपासना उत्तम है, लेकिन सगुण भक्ति सरल और सुलभ है। भक्ति में प्रेम, समर्पण और ईश्वर पर विश्वास का विशेष महत्व है। साथ ही, उन्होंने सच्चे भक्त के आदर्श गुणों को बताते हुए कहा कि ऐसे भक्त भगवान को सबसे प्रिय होते हैं।
12वें अध्याय का महत्व:
यह अध्याय यह समझने में मदद करता है कि भगवान तक पहुंचने का सबसे सरल और प्रभावी मार्ग भक्तियोग है। यह अध्याय प्रेम, श्रद्धा और समर्पण के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखाता है।
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