
यह अध्याय भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का दसवां भाग है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण अपनी दिव्य विभूतियों और महिमा का वर्णन करते हैं। यह अध्याय सम्पूर्ण भगवद्गीता का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें भगवान अपने वैश्विक रूप और शक्ति को दर्शाते हैं।
दसवें अध्याय का संपूर्ण पाठ
श्रीभगवानुवाच:
- भूय एव महाबाहो! शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥ - न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥ - यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
4-5. बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥
- महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥ - एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥ - अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः॥ - मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥ - तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥ - तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥
श्रीकृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों का वर्णन
- अर्जुन उवाच:
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥
(यहां अर्जुन भगवान की स्तुति करता है और उनके दिव्य स्वरूप को स्वीकार करता है।)
भगवान की विभूतियां:
भगवान ने इस अध्याय में बताया है कि उनकी महिमा हर जगह व्याप्त है। वे जल में स्वाद हैं, चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हैं, सभी वेदों का ओमकार हैं, मनुष्यों में बुद्धि हैं, और संपूर्ण सृष्टि उनकी विभूतियों से युक्त है।
अध्याय के अंत में:
भगवान कहते हैं कि उनकी प्रत्येक विभूति का अनुभव करके जो उन्हें जान लेता है, वह भक्त निरंतर योग के मार्ग पर बढ़ता है।
महत्व:
यह अध्याय भक्त को भगवान की व्यापकता का अनुभव कराता है और उन्हें हर जगह भगवान की उपस्थिति को देखने की प्रेरणा देता है।
यदि आप इसे पूरी तरह से पढ़ना या गाना चाहते हैं, तो संपूर्ण श्लोकों के उच्चारण और उनका अर्थ ध्यान से सुनें और समझें।
श्लोक 1
श्रीभगवानुवाच:
भूय एव महाबाहो! शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥
अर्थ:
हे महाबाहु अर्जुन! अब फिर से मेरे श्रेष्ठ वचन सुनो। मैं तुम्हें प्रिय मानते हुए, तुम्हारे हित के लिए यह ज्ञान कह रहा हूँ।
श्लोक 2
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥
अर्थ:
मेरा वास्तविक स्वरूप न तो देवताओं को ज्ञात है, न ही महान ऋषियों को। क्योंकि मैं ही देवताओं और महर्षियों का भी आदि कारण हूँ।
श्लोक 3
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
अर्थ:
जो मनुष्य मुझे अजन्मा, अनादि और समस्त लोकों का ईश्वर समझता है, वह भ्रमरहित हो जाता है और सभी पापों से मुक्त हो जाता है।
श्लोक 4-5
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥
अर्थ:
बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह (भ्रम का अभाव), क्षमा, सत्य, इंद्रियों का संयम, मन का शांति में रहना, सुख, दुःख, उत्पत्ति, विनाश, भय, अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश – ये सब भूतों के स्वभाव, मुझसे ही उत्पन्न होते हैं।
श्लोक 6
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥
अर्थ:
सात महर्षि, चार प्राचीन मनु – ये सब मेरे ही मन से उत्पन्न हुए हैं। इन्हीं से यह समस्त संसार उत्पन्न हुआ है।
श्लोक 7
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥
अर्थ:
जो मेरी इन दिव्य विभूतियों और योगशक्ति को तत्व से जानता है, वह अविचलित भक्ति में स्थित हो जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं।
श्लोक 8
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः॥
अर्थ:
मैं ही सबका कारण हूँ और सब कुछ मुझसे ही प्रवाहित होता है। ऐसा जानकर ज्ञानी जन मेरे प्रति प्रेम और श्रद्धा से भक्ति करते हैं।
श्लोक 9
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
अर्थ:
वे ज्ञानीजन अपने मन और प्राण को मुझमें स्थिर रखते हैं। आपस में मेरी बातें करते हुए, वे हमेशा आनंदित होते हैं और मुझमें रमण करते हैं।
श्लोक 10
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
अर्थ:
जो भक्त मुझे प्रेमपूर्वक भजते हैं और निरंतर मुझसे जुड़े रहते हैं, उन्हें मैं वह बुद्धि प्रदान करता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त कर सकें।
श्लोक 11
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥
अर्थ:
उन पर अनुकंपा करते हुए, मैं उनके हृदय में स्थित होकर, अज्ञानरूपी अंधकार को ज्ञानरूपी प्रकाश से नष्ट करता हूँ।
शेष श्लोकों में भगवान की विभूतियां:
इसके बाद भगवान ने अपनी विभूतियों का वर्णन किया है। जैसे:
- मैं जल में रस हूँ।
- सूर्य और चंद्रमा का प्रकाश हूँ।
- वेदों का ओंकार हूँ।
- सभी प्राणियों में जीवनशक्ति हूँ।
- पर्वतों में हिमालय हूँ।
- वृक्षों में पीपल हूँ।
- योद्धाओं में परशुराम हूँ।
- गायों में कामधेनु हूँ।
- मैं ही संपूर्ण जगत में हर श्रेष्ठता का प्रतीक हूँ।
अंतिम संदेश:
भगवान ने कहा कि जो मुझे इस प्रकार विभूतियों से युक्त जानकर मेरी भक्ति करता है, वह निश्चय ही मुझे प्राप्त करता है।
यह अध्याय भक्त को सिखाता है:
हर जगह भगवान को देखना और उनकी महानता को समझकर भक्ति और समर्पण का मार्ग अपनाना।