
श्रीमद्भगवद्गीता के 18वें अध्याय के 41 से 60 तक के श्लोक और उनके हिंदी अर्थ
जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और जहाँ धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं श्री (समृद्धि), विजय, विभूति और अचल नीति है। यह मेरा मत है।
श्लोक 41
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।
हिंदी अर्थ:
हे परंतप (अर्जुन)! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कार्य, उनके स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार विभाजित किए गए हैं।
श्लोक 42
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।
हिंदी अर्थ:
शांति, इंद्रिय-निग्रह, तप, पवित्रता, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता—ये ब्राह्मणों के स्वाभाविक कर्म हैं।
श्लोक 43
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।
हिंदी अर्थ:
शौर्य, तेज, धैर्य, चतुरता, युद्ध में न पलायन, दान और नेतृत्व करना—ये क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म हैं।
श्लोक 44
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।।
हिंदी अर्थ:
कृषि, गौपालन और व्यापार वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं, और सेवा करना शूद्रों का स्वाभाविक कर्म है।
श्लोक 45
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिर्त्थ सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।
हिंदी अर्थ:
मनुष्य अपने स्वभाव के अनुरूप कर्म करते हुए सिद्धि प्राप्त करता है। वह अपने कर्म से सिद्धि को कैसे प्राप्त करता है, यह सुनो।
श्लोक 46
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।
हिंदी अर्थ:
जिससे समस्त प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जो इस संसार में व्याप्त है, मनुष्य अपने कर्मों द्वारा उसकी पूजा करके सिद्धि प्राप्त करता है।
श्लोक 47
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।
हिंदी अर्थ:
दूसरों के धर्म का पालन करने से अपने स्वभाव के अनुसार किया गया दोषयुक्त धर्म भी श्रेष्ठ है। स्वभाव के अनुसार कर्म करते हुए मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं करता।
श्लोक 48
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।
हिंदी अर्थ:
हे कौन्तेय! अपने स्वाभाविक कर्म को, चाहे उसमें दोष भी हो, त्यागना नहीं चाहिए, क्योंकि सभी कर्म, जैसे अग्नि धुएं से ढकी होती है, दोषों से युक्त होते हैं।
श्लोक 49
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।
हिंदी अर्थ:
जो व्यक्ति सभी जगह आसक्ति से रहित, इंद्रियों को जीत चुका, और इच्छारहित है, वह संन्यास के माध्यम से नैष्कर्म्य सिद्धि (कर्मों से परे सिद्धि) प्राप्त करता है।
श्लोक 50
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।
हिंदी अर्थ:
हे कौन्तेय! अब सुनो कि कैसे परम सिद्धि को प्राप्त करने वाला व्यक्ति ब्रह्म को प्राप्त करता है। मैं इसे संक्षेप में बताऊंगा।
श्लोक 51
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।।
हिंदी अर्थ:
शुद्ध बुद्धि से युक्त, धैर्य से आत्मा को नियंत्रित करके, शब्द आदि विषयों का त्याग करके, और राग-द्वेष से रहित होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त करता है।
श्लोक 52
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।।
हिंदी अर्थ:
एकांतवासी, अल्पाहारी, वाणी, शरीर और मन को वश में रखने वाला, ध्यान योग में लीन और वैराग्य को अपनाने वाला व्यक्ति ब्रह्म को प्राप्त करता है।
श्लोक 53
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।
हिंदी अर्थ:
अहंकार, बल, अभिमान, कामना, क्रोध, और संपत्ति का त्याग करके, ममता रहित और शांतचित्त होकर मनुष्य ब्रह्म के अनुभव के योग्य बनता है।
श्लोक 54
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।
हिंदी अर्थ:
ब्रह्म को जानने वाला व्यक्ति प्रसन्नचित्त, शोक और इच्छा से रहित होता है, और सभी प्राणियों में समान भाव रखता है। ऐसा व्यक्ति मेरी परम भक्ति को प्राप्त करता है।
श्लोक 55
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।
हिंदी अर्थ:
भक्ति के द्वारा ही मनुष्य मुझे तत्व से जान सकता है कि मैं कौन हूँ और क्या हूँ। और मुझे तत्व से जानकर, वह मुझमें प्रवेश करता है।
श्लोक 56
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मद्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।
हिंदी अर्थ:
सभी कर्मों को करते हुए भी, यदि मनुष्य मेरी शरण में रहता है, तो वह मेरी कृपा से शाश्वत और अविनाशी धाम को प्राप्त करता है।
श्लोक 57
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।।
हिंदी अर्थ:
मन से सभी कर्मों को मुझे अर्पित करके, मेरी शरण में आकर, और मुझमें चित्त लगाकर तू निरंतर मेरा स्मरण कर।
श्लोक 58
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।
हिंदी अर्थ:
मुझमें चित्त लगाने से तू मेरी कृपा से सभी बाधाओं को पार कर जाएगा। यदि तू अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनेगा, तो नष्ट हो जाएगा।
श्लोक 59
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।
हिंदी अर्थ:
यदि तू अहंकार के कारण यह सोचता है कि “मैं युद्ध नहीं करूंगा”, तो तेरा यह संकल्प मिथ्या है; तेरा स्वभाव तुझे युद्ध करने के लिए बाध्य करेगा।
श्लोक 60
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्।।
हिंदी अर्थ:
हे कौन्तेय! अपने स्वभाव से उत्पन्न कर्म के द्वारा बंधा हुआ, जो तू मोहवश करना नहीं चाहता, वह तू अवश्य ही करेगा।
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म, स्वभाव, और आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति के मार्ग का विवेचन किया है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 18 के श्लोक 41 से 60 तक से हमें शिक्षाएँ मिलती हैं:
1. कर्तव्यों का पालन स्वभाव के अनुसार करें:
- हर व्यक्ति के कर्तव्य उसके स्वाभाविक गुणों और प्रवृत्ति के अनुसार होते हैं। अपने स्वभाव के अनुरूप कार्य करना ही सर्वोत्तम है। इसे अपनाने से संतोष और सफलता मिलती है।
2. अपने धर्म का पालन करें:
- अपना धर्म, चाहे वह दोषपूर्ण ही क्यों न हो, दूसरों के धर्म से श्रेष्ठ है। अपने स्वभाव और गुणों के अनुरूप कर्म करने से पाप और बाधाएँ दूर होती हैं।
3. त्याग और विनम्रता:
- अहंकार, क्रोध, लोभ, और मोह का त्याग करके मनुष्य शांति और स्थिरता प्राप्त कर सकता है। यह आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर एक महत्वपूर्ण कदम है।
4. कर्तव्य से पलायन नहीं करें:
- जीवन में चुनौतियों और कर्तव्यों से भागने का कोई लाभ नहीं है। अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म करना अनिवार्य है, क्योंकि हमारा स्वभाव हमें कर्म के लिए बाध्य करता है।
5. सभी कर्म ईश्वर को समर्पित करें:
- जब हम अपने सभी कर्म ईश्वर को समर्पित करते हैं, तो उनके माध्यम से हमें शाश्वत शांति और मोक्ष प्राप्त होता है। यह भक्ति और समर्पण का संदेश देता है।
6. सामूहिक कल्याण में विश्वास:
- हर व्यक्ति का कर्म समग्र समाज के कल्याण के लिए होना चाहिए। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्तव्य सभी समाज के संतुलन और उन्नति के लिए हैं।
7. भक्ति से परम सत्य की प्राप्ति:
- भक्ति और समर्पण के माध्यम से ईश्वर के तत्व को समझा जा सकता है। सच्ची भक्ति हमें ईश्वर में विलीन कर देती है।
8. धैर्य और ध्यान का महत्व:
- एकांतवास, संयम, और ध्यान योग आत्मा की शुद्धि और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए अनिवार्य साधन हैं।
9. शाश्वत सत्य को पहचानें:
- संसार के कार्य और बाधाएँ क्षणभंगुर हैं। आत्मा और ईश्वर ही शाश्वत सत्य हैं। जब यह समझ विकसित होती है, तब जीवन में स्थिरता और संतोष आता है।
निष्कर्ष:
श्रीमद्भगवद्गीता के इन श्लोकों से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हर व्यक्ति अपने स्वभाव और कर्तव्यों का पालन करते हुए, ईश्वर में विश्वास और समर्पण के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। हमें अपने कर्म को पूरी निष्ठा और भक्ति के साथ करते रहना चाहिए।