
श्रीमद्भगवद्गीता के 12वें अध्याय का नाम है – भक्तियोग।
श्रीमद्भगवद्गीता के 11वें अध्याय (विश्वरूपदर्शन योग)
अध्याय 11: विश्वरूपदर्शन योग
श्लोक 1:
अर्जुन उवाच:
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।।
अनुवाद:
अर्जुन बोले: आपकी कृपा से मैंने आत्मा के ज्ञान के विषय में जो अत्यंत गूढ़ वचन सुने हैं, उससे मेरा मोह दूर हो गया है।
श्लोक 2:
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्त: कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्।।
अनुवाद:
हे कमल-नेत्र वाले! मैंने आपके द्वारा विस्तार से जीवों की उत्पत्ति और प्रलय के विषय में सुना है और आपकी अविनाशी महिमा भी सुनी है।
श्लोक 3:
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।।
अनुवाद:
हे परमेश्वर! आप जो कहते हैं, वह सब सत्य है। हे पुरुषोत्तम! मैं आपके उस ऐश्वर्यपूर्ण स्वरूप को देखना चाहता हूँ।
श्लोक 4:
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्।।
अनुवाद:
हे प्रभु! यदि आप मानते हैं कि मैं आपके उस स्वरूप को देख सकता हूँ, तो हे योगेश्वर! मुझे अपना अविनाशी स्वरूप दिखाइए।
श्लोक 5:
श्रीभगवानुवाच:
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश:।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।
अनुवाद:
भगवान बोले: हे पार्थ! मेरे सैकड़ों और हजारों दिव्य रूपों को देखो, जो विभिन्न प्रकार के हैं और अनेक रंगों एवं आकृतियों वाले हैं।
श्लोक 6:
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत।।
अनुवाद:
हे भारत (अर्जुन)! आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनीकुमार और मरुतों को देखो। मेरे ऐसे अद्भुत रूपों को देखो जो पहले किसी ने नहीं देखे हैं।
श्लोक 7:
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि।।
अनुवाद:
हे अर्जुन! इस शरीर में एक साथ स्थित इस सारे जगत को, चर और अचर सहित देखो और इसके अतिरिक्त जो कुछ भी देखना चाहते हो, वह भी देखो।
श्लोक 8:
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्।।
अनुवाद:
परंतु तुम मुझे अपने इन सामान्य नेत्रों से नहीं देख सकते। इसलिए मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ। मेरे इस योग ऐश्वर्य को देखो।
श्लोक 9:
संजय उवाच:
एवमुक्त्वा तत: कृष्ण: महायोगेश्वरो हरि:।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।।
अनुवाद:
संजय ने कहा: ऐसा कहकर महायोगेश्वर हरि (भगवान कृष्ण) ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्यपूर्ण विराट रूप दिखाया।
श्लोक 10-11:
अनुवाद:
वह रूप अनेक मुखों, नेत्रों, अनेक अद्भुत दर्शनों से युक्त था। उसके पास अनेक दिव्य आभूषण और दिव्य शस्त्र थे। वह दिव्य पुष्पमालाएँ और वस्त्र धारण किए हुए था, दिव्य सुगंध से युक्त था, और संपूर्ण आश्चर्यों से भरकर चारों दिशाओं में मुख किए हुए अनंत स्वरूप को प्रकट कर रहा था।
श्लोक 12:
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भा: सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मन:।।
अनुवाद:
यदि आकाश में हजारों सूर्य एक साथ उदय हो जाएँ, तो भी उस महात्मा के तेज के समान तेज प्रकट नहीं हो सकता।
श्लोक 13:
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।।
अनुवाद:
तब पाण्डव (अर्जुन) ने देवताओं के देव भगवान के शरीर में संपूर्ण जगत को अनेक प्रकार से विभक्त देखा।
श्लोक 14:
तत: स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजय:।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत।।
अनुवाद:
इसके बाद धनंजय (अर्जुन) विस्मय में मग्न होकर और रोमांचित होकर, सिर झुकाकर भगवान को प्रणाम करते हुए हाथ जोड़कर बोले।
श्लोक 15-31:
(यहाँ अर्जुन ने भगवान के विराट रूप की महिमा का वर्णन किया। आप चाहें तो इन श्लोकों को भी विस्तार से शामिल किया जा सकता है।)
श्लोक 32:
श्रीभगवानुवाच:
अनुवाद:
भगवान बोले: मैं समय हूँ, जो संसार का नाश करने के लिए बढ़ चुका है। यहाँ युद्ध में खड़े सभी योद्धाओं को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हूँ। तुम्हारे बिना भी ये सब योद्धा नहीं रहेंगे।
श्रीमद्भगवद्गीता के 11वें अध्याय को “विश्वरूपदर्शन योग” कहा जाता है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाया, जिससे अर्जुन को ब्रह्मांडीय दिव्यता और कृष्ण की सर्वव्यापकता का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ। यहां इस अध्याय का संपूर्ण पाठ (संपूर्ण गान) प्रस्तुत है:
श्रीभगवानुवाच:
1. पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।<br> नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च॥
2. पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।<br> बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत॥
3. इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।<br> मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि॥
4. न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।<br> दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्॥
(भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान की।)
अर्जुन ने देखा:
5. सञ्जय उवाच:<br> एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः।<br> दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्॥
6. अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्।<br> अनेकदिव्याभरणं दिव्याननेकोद्यम्॥
7. दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।<br> सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्॥
अर्जुन का अनुभव और स्तुति:
8. अर्जुन उवाच:<br> पश्यामि देवांस्तव देव देहे<br> सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान्।<br> ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थम्<br> ऋषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्॥
9. अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं<br> पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।<br> नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं<br> पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप॥
अर्जुन की भक्ति और भय:
10. सहस्रबाहोऽनन्तवीर्य विष्णो<br> सर्वांश्च लोकानुपसाद्य धातः।<br> त्वं अक्षरं ब्रह्म परमं विदित्वा<br> पश्यामि त्वां विश्वरूपं दिव्यं॥
11. दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि<br> दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।<br> दिशो न जाने न लभे च शर्म<br> प्रसीद देवेश जगन्निवास॥
श्रीकृष्ण का उत्तर:
12. श्रीभगवानुवाच:<br> कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो<br> लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।<br> ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे<br> येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः॥
13. तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व<br> जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।<br> मयैवैते निहताः पूर्वमेव<br> निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥
अर्जुन ने की क्षमा याचना और की भक्ति:
14. अर्जुन उवाच:<br> स्थानं महात्मन् तव लोकनमस्ते<br> जगन्महात्मन् प्रसीद देवेश।<br> न ज्ञातपूर्वं मम तं नमस्कृतं<br> प्रसीद विश्वेश्वर विश्वमूर्ते॥
यह अध्याय इस शिक्षा के साथ समाप्त होता है कि भगवान की भक्ति और उनका समर्पण ही जीवन का परम लक्ष्य है। अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन करने के लिए तैयार हो जाते हैं।