
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 18 के श्लोक 21 से 40 तक के मूल श्लोक और उनके हिंदी अर्थ
श्लोक 21
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।
अर्थ:
जो ज्ञान मनुष्य को यह अनुभव कराता है कि प्रत्येक प्राणी भिन्न-भिन्न हैं और इनमें कोई एकता नहीं है, उस ज्ञान को राजसिक (अधोगामी) कहा गया है।
श्लोक 22
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।
अर्थ:
जो ज्ञान बिना तर्क और सत्य के केवल एक ही बात या कार्य को सत्य मानता है और जिसमें छोटी-सी दृष्टि होती है, उसे तामसिक (अज्ञानपूर्ण) कहा गया है।
श्लोक 23
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।
अर्थ:
जो कर्म विधिपूर्वक, आसक्ति और राग-द्वेष से रहित होकर, केवल कर्तव्य के लिए किया जाता है, वह सात्त्विक कर्म है।
श्लोक 24
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।
अर्थ:
जो कर्म फल की इच्छा से, या अहंकारपूर्वक, तथा अत्यधिक श्रम के साथ किया जाता है, वह राजसिक कर्म कहा गया है।
श्लोक 25
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।
अर्थ:
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा आदि की परवाह किए बिना, केवल मोहवश किया जाता है, वह तामसिक कर्म है।
श्लोक 26
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।
अर्थ:
जो कर्ता आसक्ति और अहंकार से रहित होता है, जिसमें धैर्य और उत्साह होता है, और जो सफलता-असफलता में समान रहता है, वह सात्त्विक कर्ता है।
श्लोक 27
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः।।
अर्थ:
जो कर्ता फल की इच्छा करता है, रागयुक्त, लोभी, हिंसक, अपवित्र और हर्ष-शोक से प्रभावित होता है, वह राजसिक कर्ता है।
श्लोक 28
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।
अर्थ:
जो कर्ता अयुक्त, मूढ़, ढीठ, दुष्ट, आलसी, उदास और विलंब करने वाला होता है, वह तामसिक कर्ता है।
श्लोक 29
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय।।
अर्थ:
हे अर्जुन! अब बुद्धि और धृति के तीन भेदों को, जो गुणों के अनुसार होते हैं, सुनो।
श्लोक 30
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।
अर्थ:
जो बुद्धि कर्तव्य और अकर्तव्य, भय और अभय, बंधन और मुक्ति को सही रूप में समझती है, वह सात्त्विक बुद्धि है।
श्लोक 31
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।
अर्थ:
जो बुद्धि धर्म और अधर्म तथा कर्तव्य-अकर्तव्य को गलत रूप में समझती है, वह राजसिक बुद्धि है।
श्लोक 32
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।
अर्थ:
जो बुद्धि अधर्म को धर्म समझती है और अन्य सभी बातों को विपरीत रूप में देखती है, वह तामसिक बुद्धि है।
श्लोक 33
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी।।
अर्थ:
जो धृति मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को अडिग योग द्वारा संभालती है, वह सात्त्विक धृति है।
श्लोक 34
यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयते अर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी।।
अर्थ:
जो धृति धर्म, अर्थ और काम के कार्यों को फल की इच्छा से करती है, वह राजसिक धृति है।
श्लोक 35
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।
अर्थ:
जो धृति, अज्ञान के कारण, स्वप्न, भय, शोक, विषाद और अहंकार में डूबी रहती है, वह तामसिक धृति है।
श्लोक 36
सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।
अर्थ:
हे अर्जुन! अब तीन प्रकार के सुखों को सुनो। वह सुख, जो अभ्यास से प्राप्त होता है और दुःख का अंत करता है, वह सात्त्विक सुख है।
श्लोक 37
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।
अर्थ:
जो सुख प्रारंभ में विष के समान प्रतीत होता है, लेकिन अंत में अमृत के समान होता है, वह सात्त्विक सुख है।
श्लोक 38
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।
अर्थ:
जो सुख इंद्रियों और विषयों के संयोग से प्रारंभ में अमृत के समान प्रतीत होता है, लेकिन अंत में विष के समान होता है, वह राजसिक सुख है।
श्लोक 39
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।।
अर्थ:
जो सुख प्रारंभ और अंत में अज्ञान, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होता है, वह तामसिक सुख है।
श्लोक 40
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः।।
अर्थ:
इस पृथ्वी पर, स्वर्ग में या देवताओं के बीच भी कोई ऐसा प्राणी नहीं है, जो इन तीन गुणों (सत्व, रजस और तमस) से रहित हो।
यहाँ श्रीमद्भगवद्गीता के इन श्लोकों में गुण, कर्म, और सुख-दुःख के आधार पर मानव स्वभाव और उनके कार्यों का विवरण दिया गया है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 18 के श्लोक 21 से 40 तक से मिलने वाली संपूर्ण शिक्षा
अध्याय 18 का यह भाग हमें ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति (धैर्य), और सुख के विभिन्न प्रकारों का गहन विवेचन देता है। इसमें यह बताया गया है कि मानव जीवन में किस प्रकार सात्त्विक (उत्तम), राजसिक (आसक्त), और तामसिक (अधोगामी) प्रवृत्तियाँ हमारे विचार, व्यवहार और कर्मों को प्रभावित करती हैं।
प्रमुख शिक्षाएँ:
1. ज्ञान के प्रकार
- सात्त्विक ज्ञान: हर प्राणी में एक समान दिव्यता और एकता को देखता है। यह सोच हमें परोपकार, करुणा, और समभाव सिखाता है।
- राजसिक ज्ञान: भिन्नता पर केंद्रित होता है और मनुष्य को स्वार्थपूर्ण और अलगाववादी बनाता है।
- तामसिक ज्ञान: अत्यंत सीमित और सत्य से परे होता है, जो अज्ञान और भ्रम को बढ़ावा देता है।
शिक्षा: हमें ऐसा ज्ञान अर्जित करना चाहिए जो हमें अपनी आत्मा और दूसरों की आत्मा में एकता देखने की प्रेरणा दे।
2. कर्म के प्रकार
- सात्त्विक कर्म: केवल कर्तव्य भावना से, फल की इच्छा से मुक्त होकर किया गया कार्य।
- राजसिक कर्म: अहंकार और फल की लालसा से प्रेरित कार्य।
- तामसिक कर्म: अज्ञान, आलस्य, और हिंसा से प्रेरित कार्य।
शिक्षा: कर्तव्य भावना से, निस्वार्थ और परमार्थ के लिए कर्म करें। कर्म में पवित्रता होनी चाहिए, न कि स्वार्थ या आलस्य।
3. कर्त्ता के प्रकार
- सात्त्विक कर्ता: जो आसक्ति और अहंकार से मुक्त, धैर्यवान और उत्साही होता है।
- राजसिक कर्ता: जो लोभी, स्वार्थी, और अहंकारी होता है।
- तामसिक कर्ता: जो आलसी, प्रमादी और कर्तव्य के प्रति लापरवाह होता है।
शिक्षा: हमें अपने कार्यों में नम्रता, धैर्य और निष्कामता लानी चाहिए। अहंकार को छोड़कर कर्म करना श्रेष्ठ है।
4. बुद्धि के प्रकार
- सात्त्विक बुद्धि: धर्म और अधर्म, कर्तव्य और अकर्तव्य में सही भेद समझने वाली।
- राजसिक बुद्धि: जो सत्य को गलत और गलत को सत्य के रूप में देखती है।
- तामसिक बुद्धि: जो धर्म-अधर्म को विपरीत रूप में समझती है।
शिक्षा: विवेकपूर्ण बुद्धि का विकास करें, जो हमें सही निर्णय लेने में मदद करे और सत्य के मार्ग पर ले जाए।
5. धृति (धैर्य) के प्रकार
- सात्त्विक धृति: मन, इंद्रियों और कर्मों को योग और संयम द्वारा नियंत्रित रखने की क्षमता।
- राजसिक धृति: केवल धन, सुख, और इच्छाओं की प्राप्ति के लिए धैर्य।
- तामसिक धृति: जो आलस्य, भय, और प्रमाद को बढ़ावा देती है।
शिक्षा: हमें अपने जीवन में संयम और स्थिरता बनाए रखने के लिए सात्त्विक धृति का अभ्यास करना चाहिए।
6. सुख के प्रकार
- सात्त्विक सुख: जो प्रारंभ में कठिन प्रतीत होता है, लेकिन अंत में शांति और आनंद देता है।
- राजसिक सुख: जो इंद्रियों की तृप्ति से प्रारंभ में अच्छा लगता है, लेकिन अंत में दुःख देता है।
- तामसिक सुख: जो आलस्य, अज्ञान, और प्रमाद से उत्पन्न होता है।
शिक्षा: सच्चा सुख वही है, जो आत्मा को शांति और उन्नति प्रदान करे, न कि केवल क्षणिक तृप्ति।
7. तीनों गुणों से ऊपर उठना
अंत में भगवान कृष्ण कहते हैं कि इस संसार में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है जो सत्व, रजस और तमस से पूरी तरह मुक्त हो। लेकिन मनुष्य इन गुणों के प्रभाव से ऊपर उठ सकता है, यदि वह विवेकपूर्ण ज्ञान, निस्वार्थ कर्म, और संयमित जीवन का अभ्यास करे।
शिक्षा: हमें अपने जीवन में सत्त्व गुणों को अधिकाधिक बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए, और रजस एवं तमस से बचना चाहिए।
व्यवहारिक शिक्षा
- आत्म-अवलोकन करें: अपने विचारों, कर्मों, और स्वभाव का मूल्यांकन करें कि वे किस गुण के अंतर्गत आते हैं।
- सात्त्विक गुणों को बढ़ाएँ: सत्य, संयम, करुणा, और निस्वार्थता का पालन करें।
- स्वार्थ और आलस्य से बचें: राजसिक और तामसिक प्रवृत्तियों को पहचानकर उनसे बचने का प्रयास करें।
- धैर्य और विवेक को अपनाएँ: हर परिस्थिति में सही निर्णय लेने के लिए संयम और ज्ञान का अभ्यास करें।
- सच्चा सुख खोजें: बाहरी सुख की बजाय आत्मिक शांति और आध्यात्मिक उन्नति का लक्ष्य बनाएं।
निष्कर्ष
इन श्लोकों का संदेश यह है कि मनुष्य को अपने ज्ञान, कर्म, बुद्धि, और धैर्य को शुद्ध और सात्त्विक बनाकर जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य (मोक्ष) प्राप्त करने की ओर अग्रसर होना चाहिए। यह तभी संभव है जब हम अपनी कमजोरियों (राजस और तमस गुणों) को पहचानें और सत्त्व गुणों को जीवन में स्थान दें।
“जीवन में कर्म, ज्ञान और धैर्य को सात्त्विक बनाकर ही आत्मिक शांति और उन्नति प्राप्त की जा सकती है।”