
हनुमान जी की संपूर्ण पूजा विधि
श्रीमद्भगवद्गीता का 13वाँ अध्याय “क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग” कहलाता है। इसमें 35 श्लोक हैं। नीचे अध्याय 13 के सभी श्लोक दिए गए हैं:
श्रीभगवानुवाच:
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु॥
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः॥
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः॥
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्॥
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा॥
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भुतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च॥
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्॥
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते॥
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्॥
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥
उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते॥
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वाऽन्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः॥
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्॥
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति॥
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्॥
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते॥
भावार्थ
यह अध्याय हमें शरीर (क्षेत्र) और आत्मा (क्षेत्रज्ञ) का ज्ञान देता है और यह भी समझाता है कि कैसे ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा तक पहुँचा जा सकता है। नीचे श्रीमद्भगवद्गीता के 13वें अध्याय के सभी श्लोकों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है:
श्रीभगवान बोले:
- हे कौन्तेय (अर्जुन)! इस शरीर को “क्षेत्र” कहा जाता है और जो इसे जानता है, उसे “क्षेत्रज्ञ” कहा जाता है।
- हे भारत (अर्जुन)! तुम मुझे भी सभी “क्षेत्रों” में “क्षेत्रज्ञ” समझो। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही सच्चा ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है।
- इस क्षेत्र का क्या स्वरूप है, यह किस प्रकार है, इसके विकार (परिवर्तन) क्या हैं, और यह किस कारण से उत्पन्न होता है, इसे विस्तार से समझो।
- इस विषय में अनेक ऋषियों ने विभिन्न प्रकार से वर्णन किया है, वेदों में गाये हुए मंत्रों और ब्रह्मसूत्रों में तर्कसंगत व्याख्यानों द्वारा इसे स्पष्ट किया गया है।
- पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश), अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (मूल प्रकृति), दस इंद्रियाँ, एक मन, और पाँच इंद्रिय विषय – ये सब क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं।
- इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, शरीर का संघात (संगठन), चेतना और धृति (धारण शक्ति) – ये सब भी क्षेत्र के विकार हैं।
- नम्रता, दिखावा न करना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, पवित्रता, स्थिरता और आत्मसंयम – ये सब ज्ञान के लक्षण हैं।
- इंद्रिय विषयों में वैराग्य, अहंकार का अभाव, जन्म-मृत्यु, जरा (बुढ़ापा) और व्याधि (रोग) के दुःखों के दर्शन का ज्ञान – ये सब ज्ञान है।
- आसक्ति का अभाव, पुत्र, पत्नी, घर आदि में ममता का न होना, और सुख-दुःख में समभाव – यह ज्ञान है।
- मुझमें अनन्य और अविचल भक्ति, एकांत स्थान में रहना, साधारण जनसमूह से विमुखता – यह भी ज्ञान का भाग है।
- आत्मज्ञान में स्थिरता, तत्वज्ञान की खोज, और सत्य को देखना – यह ज्ञान है। इसके विपरीत सब अज्ञान है।
- अब मैं तुम्हें उस जानने योग्य तत्व का वर्णन करता हूँ, जिसे जान लेने से अमृत (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। वह तत्व अनादि, परम ब्रह्म है।
- वह ब्रह्म, जो हाथ-पैर, आँख, कान, मुँह आदि से रहित होकर भी सर्वव्यापी है, और जो सब जगह व्याप्त है, वही परम सत्य है।
- वह सब इंद्रियों में व्याप्त होते हुए भी इंद्रियों से परे है। वह निर्गुण होते हुए भी गुणों का अनुभव करता है।
- वह सब भूतों के भीतर और बाहर दोनों में स्थित है, वह अचर (स्थिर) और चर (गतिशील) दोनों है।
- वह एक होकर भी अनेक रूपों में प्रकट होता है। वह सबको धारण करता है और सबका संहार करता है।
- वह सभी प्रकाशों का भी प्रकाश है। वह अज्ञान के अंधकार से परे है। वह ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञान से प्राप्त होने वाला लक्ष्य है।
- इस प्रकार मैंने क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय को संक्षेप में समझाया। जो मेरी भक्ति करते हैं, वे इस ज्ञान को प्राप्त करके मेरे स्वरूप को प्राप्त होते हैं।
- प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं। प्रकृति से ही गुण और विकार उत्पन्न होते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता का 13वाँ अध्याय “क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग”
- कर्मों का कारण प्रकृति है और सुख-दुःख का अनुभव कराने वाला पुरुष है।
- पुरुष, प्रकृति के गुणों का अनुभव करता है और उसके साथ जुड़ने के कारण अच्छे और बुरे जन्मों को प्राप्त करता है।
- इस शरीर में स्थित परमात्मा, जो साक्षी, अनुमापक, भर्ता, भोक्ता और महेश्वर है, उसे पुरुष कहते हैं।
- जो इस प्रकार प्रकृति, पुरुष और उनके गुणों को समझता है, वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।
- कुछ लोग ध्यान के द्वारा, कुछ ज्ञान के द्वारा, और कुछ कर्मयोग के द्वारा आत्मा का अनुभव करते हैं।
- कुछ लोग दूसरों से सुनकर भी उपासना करते हैं और वे भी मृत्यु से पार हो जाते हैं।
- हे भरतश्रेष्ठ! जो भी स्थावर (जड़) और जंगम (चलने वाले) प्राणी उत्पन्न होते हैं, वे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही होते हैं।
- जो व्यक्ति सभी प्राणियों में एक ही परमात्मा को समान रूप से देखता है, वह सही मायने में देखता है।
- जो व्यक्ति यह देखता है कि आत्मा कभी नष्ट नहीं होती, वह सत्य को देखता है और वह परम गति को प्राप्त करता है।
- प्रकृति ही सभी कार्य करती है। जो यह देखता है कि आत्मा अकर्ता है, वह सही मायने में देखता है।
- जब कोई यह समझता है कि सभी प्राणियों की उत्पत्ति एक ही स्रोत से है, तो वह ब्रह्म को प्राप्त करता है। श्रीमद्भगवद्गीता का 13वाँ अध्याय “क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग”
- शरीर में स्थित आत्मा, न जन्म लेती है और न मरती है। वह निर्गुण और अविनाशी है।
- जैसे आकाश किसी चीज से लिप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा भी शरीर में स्थित होकर भी लिप्त नहीं होती।
- जैसे सूर्य समस्त संसार को प्रकाशित करता है, वैसे ही आत्मा भी शरीर को प्रकाशित करता है।
- जो ज्ञानचक्षु (आध्यात्मिक दृष्टि) से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को भलीभांति समझते हैं, वे ही सत्य को प्राप्त करते हैं।
यह अध्याय आत्मा और शरीर के अंतर, और मोक्ष प्राप्ति के साधनों को विस्तार से समझाता है।