
श्रीमद्भगवद्गीता का सातवाँ अध्याय “ज्ञान-विज्ञान योग” के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा, प्रकृति, और ईश्वर के रहस्यों का ज्ञान देते हैं। यह अध्याय ज्ञान (सैद्धांतिक शिक्षा) और विज्ञान (व्यावहारिक अनुभव) का समन्वय प्रस्तुत करता है। इस अध्याय में भक्ति योग और कर्म योग को जोड़ते हुए, ईश्वर की सर्वोच्च सत्ता और उनकी आराधना के महत्व को समझाया गया है।
सातवें अध्याय का सारांश:
मुख्य विषय:
- ज्ञान और विज्ञान का समन्वय
- श्रीकृष्ण बताते हैं कि ईश्वर को जानने के लिए केवल भौतिक ज्ञान पर्याप्त नहीं है। आध्यात्मिक अनुभव के साथ ही ईश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है।
- भगवान की सत्ता
- श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह सभी जीवों के मूल कारण हैं। सब कुछ उनकी शक्ति से संचालित होता है।
- प्रकृति और पुरुष
- संसार में दो प्रकार की शक्तियाँ होती हैं: अपरा (भौतिक) और परा (आध्यात्मिक)। परा शक्ति ही जीव का वास्तविक स्वरूप है।
- भक्ति का महत्व
- ईश्वर को जानने और प्राप्त करने का सर्वोत्तम मार्ग भक्ति है। भक्ति से ही व्यक्ति ईश्वर के रहस्यों को समझ सकता है।
- ईश्वर के चार प्रकार के भक्त
- श्रीकृष्ण चार प्रकार के भक्तों का वर्णन करते हैं:
- दुःखी (जो पीड़ा से बचने के लिए भगवान की शरण में आते हैं)
- जिज्ञासु (जो सत्य जानने की इच्छा रखते हैं)
- अर्थार्थी (जो भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए भगवान का आश्रय लेते हैं)
- ज्ञानी (जो ईश्वर को सच्चे अर्थों में जानते और उनकी आराधना करते हैं)।
- श्रीकृष्ण चार प्रकार के भक्तों का वर्णन करते हैं:
- ईश्वर की महिमा
- श्रीकृष्ण कहते हैं कि सभी देवी-देवता उनकी विभिन्न शक्तियों का ही रूप हैं। सच्चा भक्त केवल उन्हीं की पूजा करता है।
श्लोक और अर्थ:
श्लोक 7.3:
“मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वत:।।”
अर्थ:
हजारों मनुष्यों में कोई एक सिद्धि (आत्मा का सच्चा ज्ञान) पाने का प्रयास करता है। और उन सिद्ध व्यक्तियों में भी कोई एक ही मुझे सच्चे रूप में जान पाता है।
श्लोक 7.14:
“दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।”
अर्थ:
मेरी माया शक्ति त्रिगुणात्मक है और इसे पार करना अत्यंत कठिन है। लेकिन जो मेरी शरण में आते हैं, वे इसे सहज ही पार कर लेते हैं।
श्लोक 7.16:
“चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।”
अर्थ:
हे अर्जुन, चार प्रकार के सुकृतशील (सत्कर्मी) लोग मेरी भक्ति करते हैं—दुःखी, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी।
श्लोक 7.19:
“बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:।।”
अर्थ:
कई जन्मों के बाद, सच्चा ज्ञानी यह समझता है कि वासुदेव (भगवान) ही सब कुछ हैं, और वह मेरी शरण में आता है। ऐसा महात्मा बहुत दुर्लभ होता है।
सातवें अध्याय की मुख्य शिक्षाएँ:
- ईश्वर की अनंत शक्ति:
- भगवान ही सृष्टि के रचयिता, पालक और संहारक हैं।
- भक्ति का महत्व:
- ईश्वर को केवल प्रेम और भक्ति के द्वारा ही जाना जा सकता है।
- माया और भक्ति:
- भगवान की माया से केवल उनकी शरण में आकर ही मुक्त हुआ जा सकता है।
- संपूर्ण ईश्वर:
- भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वह ही सब देवी-देवताओं का मूल स्रोत हैं।
निष्कर्ष:
यह अध्याय सिखाता है कि केवल ज्ञान (ज्ञानयोग) और भक्ति (भक्ति योग) के संतुलन से ही भगवान को समझा जा सकता है। माया के बंधनों से मुक्त होने और ईश्वर को प्राप्त करने के लिए भगवान की भक्ति करना ही सर्वोत्तम मार्ग है।