
श्रीमद्भगवद्गीता: अध्याय 18 (मोक्षसंन्यास योग)
श्रीमद्भगवद्गीता: अध्याय 18 (मोक्षसंन्यास योग)
श्लोक 1 से 28 तक – हिंदी अनुवाद
श्लोक 1
अर्जुन उवाच:
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।।
अर्थ:
अर्जुन ने कहा: हे महाबाहु श्रीकृष्ण! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को अलग-अलग रूप में जानने की इच्छा करता हूँ। हे केशव! कृपया इसे समझाइए।
श्लोक 2
श्रीभगवानुवाच:
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।
अर्थ:
श्रीकृष्ण ने कहा: बुद्धिमान कहते हैं कि कामनाओं से युक्त कर्मों का त्याग संन्यास है, और सभी कर्मों के फल का त्याग करना त्याग कहलाता है।
श्लोक 3
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे।।
अर्थ:
कुछ विद्वान कहते हैं कि कर्म दोषयुक्त है, इसलिए इसे त्याग देना चाहिए। लेकिन अन्य विद्वान कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप जैसे कर्मों को त्यागना नहीं चाहिए।
श्लोक 4
निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः।।
अर्थ:
हे भरतश्रेष्ठ! त्याग के बारे में मेरा निश्चित मत सुनो। हे श्रेष्ठ पुरुष! त्याग को तीन प्रकार का कहा गया है।
श्लोक 5
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।
अर्थ:
यज्ञ, दान और तप जैसे कर्मों को त्यागना नहीं चाहिए, क्योंकि ये बुद्धिमान पुरुषों को शुद्ध करने वाले हैं।
श्लोक 6
एतान्यपि तु कर्माणि संगं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्।।
अर्थ:
हे अर्जुन! इन कर्मों को आसक्ति और फल की इच्छा त्यागकर करना चाहिए। यही मेरा उत्तम मत है।
श्लोक 7
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः।।
अर्थ:
जो नियत कर्म हैं, उनका त्याग उचित नहीं है। मोहवश उन कर्मों का त्याग करना तामसिक (अज्ञानपूर्ण) कहा गया है।
श्लोक 8
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्।।
अर्थ:
यदि कोई कष्ट का कारण मानकर और शरीर के कष्ट के भय से कर्म का त्याग करे, तो वह राजसिक त्याग कहलाता है। ऐसा त्याग करने वाला त्याग का फल प्राप्त नहीं करता।
श्लोक 9
कार्यं इत्येव यत्कर्म नियतं क्रियते अर्जुन।
सङ्गं त्यक्त्वा फलंचैव स त्यागः सात्त्विको मतः।।
अर्थ:
हे अर्जुन! जो कर्म कर्तव्य समझकर, आसक्ति और फल की इच्छा त्याग कर किया जाता है, वह सात्त्विक त्याग कहलाता है।
श्लोक 10
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः।।
अर्थ:
सात्त्विक त्याग करने वाला व्यक्ति अशुभ कर्मों से द्वेष नहीं करता और शुभ कर्मों में आसक्त भी नहीं होता। ऐसा त्यागी मेधावी और संशय रहित होता है।
श्लोक 11
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।
अर्थ:
कर्मों को संपूर्ण रूप से त्यागना देहधारी के लिए संभव नहीं है। लेकिन जो व्यक्ति कर्मफल का त्याग करता है, वही सच्चा त्यागी कहा जाता है।
श्लोक 12
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।।
अर्थ:
त्याग न करने वालों को कर्म का तीन प्रकार का फल—अप्रिय, प्रिय और मिश्रित प्राप्त होता है। लेकिन संन्यासियों को ऐसा कोई फल नहीं मिलता।
श्लोक 13
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।
अर्थ:
हे महाबाहु! कर्मों की सिद्धि के लिए जो पाँच कारण हैं, उन्हें सुनो। ये सांख्य शास्त्र में बताए गए हैं।
श्लोक 14
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।
अर्थ:
वे पाँच कारण हैं—कर्म का आधार (शरीर), कर्ता (आत्मा), इंद्रियाँ (करण), विविध प्रकार की चेष्टाएँ, और पाँचवाँ कारण ईश्वर।
श्लोक 15
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।
अर्थ:
मनुष्य जो भी कर्म शरीर, वाणी और मन से करता है—चाहे वह उचित हो या अनुचित—इन पाँच कारणों से ही वह कर्म संपन्न होता है।
श्लोक 16
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।
अर्थ:
जो अज्ञान के कारण केवल आत्मा को ही कर्ता मानता है, वह अशुद्ध बुद्धि वाला व्यक्ति सत्य को नहीं देख पाता।
श्लोक 17
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।
अर्थ:
जिस व्यक्ति का अहंकार नष्ट हो चुका है और जिसकी बुद्धि संसार में लिप्त नहीं होती, वह चाहे सभी प्राणियों का संहार करे, फिर भी पाप से बंधता नहीं।
श्लोक 18
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः।।
अर्थ:
ज्ञान, ज्ञेय (जानने योग्य) और ज्ञाता (जानने वाला)—ये तीन कर्मों के प्रेरक हैं। इंद्रियाँ, कर्म और कर्ता—ये तीन कर्मों के आधार हैं।
श्लोक 19
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।।
अर्थ:
ज्ञान, कर्म और कर्ता को गुणों के आधार पर तीन प्रकार में विभाजित किया गया है। अब उन्हें विस्तार से सुनो।
श्लोक 20
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।
अर्थ:
जो ज्ञान सभी प्राणियों में एक ही अविनाशी आत्मा को देखता है, और विभाजित होते हुए भी उसे अविभाज्य मानता है, वह सात्त्विक ज्ञान है।
श्लोक 21
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।
अर्थ:
जो ज्ञान विभिन्न प्राणियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वभावों को देखता है, वह राजसिक ज्ञान कहलाता है।
श्लोक 22
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।
अर्थ:
जो ज्ञान एक ही वस्तु में संपूर्ण मानकर, बिना तर्क के और तुच्छ दृष्टि से कार्य करता है, वह तामसिक ज्ञान कहलाता है।
श्लोक 23
नियतं संगवर्जितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।
अर्थ:
जो कर्म नियत रूप से, आसक्ति रहित, बिना राग-द्वेष और फल की कामना के किया जाता है, वह सात्त्विक कर्म कहलाता है।
श्लोक 24
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।
अर्थ:
जो कर्म कामना से या अहंकार के वशीभूत होकर, बहुत परिश्रम से किया जाता है, वह राजसिक कर्म कहलाता है।
श्लोक 25
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।
अर्थ:
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और क्षमता का विचार किए बिना, अज्ञानवश आरंभ किया जाता है, वह तामसिक कर्म कहलाता है।
श्लोक 26
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।
अर्थ:
जो कर्ता आसक्ति से मुक्त, अहंकार रहित, धैर्य और उत्साह से युक्त होता है तथा सफलता और असफलता में समान रहता है, वह सात्त्विक कर्ता कहलाता है।
श्लोक 27
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः।।
अर्थ:
जो कर्ता रागी, कर्म के फल का इच्छुक, लोभी, हिंसक, अशुद्ध और हर्ष-शोक से युक्त होता है, वह राजसिक कर्ता कहलाता है।
श्लोक 28
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।
अर्थ:
जो कर्ता अश्रद्धालु, मूर्ख, जड़, कपटी, दुष्ट, आलसी, उदास और विलंब करने वाला होता है, वह तामसिक कर्ता कहलाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता: अध्याय 18 (मोक्षसंन्यास योग) से शिक्षा
अध्याय 18 के श्लोक 1 से 28 तक में श्रीकृष्ण ने संन्यास और त्याग की परिभाषा, विभिन्न प्रकार के कर्म, ज्ञान, और कर्ता की प्रकृति को समझाया है। इन श्लोकों से हमें निम्नलिखित शिक्षाएँ प्राप्त होती हैं:
1. कर्तव्यपालन के महत्व की शिक्षा
श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि यज्ञ, दान, और तप जैसे कर्मों को त्यागना अनुचित है।
- यह शिक्षा हमें बताती है कि हमारे कर्तव्य (धर्म) का पालन करना महत्वपूर्ण है।
- केवल फल की आसक्ति त्यागकर अपने कार्य में लीन होना ही सच्चा त्याग है।
2. त्याग का सही अर्थ
त्याग का मतलब यह नहीं है कि कर्मों को छोड़ दिया जाए। बल्कि, फल की कामना और आसक्ति का त्याग करना ही सच्चा त्याग है।
- हमें कर्म करते हुए निष्काम भाव रखना चाहिए।
- त्याग का यह दृष्टिकोण जीवन में शांति और संतुलन लाने में मदद करता है।
3. कर्म के परिणामों की स्वीकृति
कर्म के तीन प्रकार के परिणाम होते हैं: सुखद, दुखद, और मिश्रित।
- हमें इन परिणामों को स्वीकृत करना चाहिए, क्योंकि वे हमारे कर्मों का स्वाभाविक फल हैं।
- किसी भी परिस्थिति में मानसिक संतुलन बनाए रखना सिखाया गया है।
4. ज्ञान और कर्म का संबंध
ज्ञान, कर्म, और कर्ता तीनों को गुणों (सात्त्विक, राजसिक, तामसिक) के अनुसार समझाया गया है।
- सात्त्विक ज्ञान: सभी प्राणियों में समान आत्मा को देखना।
- राजसिक ज्ञान: विभाजन की दृष्टि रखना।
- तामसिक ज्ञान: संकीर्ण और अपूर्ण दृष्टि रखना।
यह हमें सिखाता है कि सही दृष्टिकोण से कर्म करना आवश्यक है।
5. कर्ता के गुण और उनकी प्रकृति
कर्ताओं को भी तीन प्रकार में विभाजित किया गया है:
- सात्त्विक कर्ता: जो निःस्वार्थ, उत्साही और धैर्यवान है।
- राजसिक कर्ता: जो लालच, राग और अहंकार से प्रेरित है।
- तामसिक कर्ता: जो आलसी, उदास, और हिंसक है।
यह हमें यह जानने की शिक्षा देता है कि हमें किस प्रकार का कर्ता बनना चाहिए।
6. मोक्ष और आत्मोन्नति का मार्ग
- मोक्ष का मार्ग केवल कर्मों के त्याग से नहीं, बल्कि सही भावना और ज्ञान से होकर गुजरता है।
- अपने जीवन में ईश्वर के प्रति समर्पण और संसार के प्रति असक्त भाव से कार्य करने पर जोर दिया गया है।
7. फल की इच्छा के बिना कर्म करने की प्रेरणा
श्रीकृष्ण ने सिखाया कि कर्म का फल ईश्वर के अधीन है।
- हमें केवल अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, न कि परिणाम पर।
- यह दृष्टिकोण मानसिक शांति और आत्मिक संतोष लाता है।
व्यावहारिक शिक्षा
- अपने कार्यों में ईमानदारी और निःस्वार्थता बनाए रखें।
- किसी भी परिस्थिति में धैर्य और संतुलन बनाए रखें।
- हर प्राणी में समान आत्मा का दर्शन करें और भेदभाव से बचें।
- आलस्य और अज्ञान को त्यागकर ज्ञान और उत्साह के साथ कार्य करें।
- अहंकार और फल की इच्छा का त्याग कर कर्म में लीन रहें।
निष्कर्ष:
यह अध्याय सिखाता है कि जीवन में सच्ची सफलता त्याग, कर्तव्यपालन, और ईश्वर में समर्पण से मिलती है। हम अपने कर्मों को सही दृष्टिकोण और सही भावना के साथ करें, यही जीवन का वास्तविक धर्म और योग है।